हम क्यों पढ़ते हैं

Nitesh Kumar Patel
4 min readFeb 21, 2023

‘हम क्यों लिखते हैं’ तक जाने से पहले की सीढ़ी है ‘हम क्यों पढ़ते हैं’। आह! कैसा सुंदर सवाल। अभी कुछ समय पहले फिर प्रीती कथा पढ़ी, एक बार पढ़ने के बाद वापस उसी पुस्तक को एक और बार पढ़ने की इच्छा पंक्तियों को नहीं पंक्तियों के बीच जो लिखा है उसे पढ़ना चाहती है। पढ़ते हुए मुझे रोमांच हो आता है। हाथों से बढ़ते हुए एक सिहरन कंधों तक जाती है और पूरे बदन में कुछ होता है — इतना रोमांच किसी प्रेमिका के बारे में सोचते हुए भी नहीं होता। प्रीती कथा के शुरुआती पन्ने पढ़ते हुए मन किस तरह वाह कर उठा था। कितनी बार बीच में रुक कर मुझे कहना पड़ा था कि ऐसा कोई कैसे लिख सकता है — कहाँ-कहाँ की यात्रा की होगी लिखने वाले ने यह लिखने से पहले। इतनी गहराई और इतना विस्तार एक साथ!

नरेंद्र कोहली पहले दर्शन के स्तर पर आपसे बात करते हैं और आप उनके पीछे-पीछे बढ़ते जाते हैं — अँधेरी सुरंग में किसी रौशनी की पतली-सी लकीर की तरह। और फिर कहानी दर्शन से यथार्थ में आती है — आप सुरंग से बाहर हैं, एक जीवित संसार के बीच मगर सुरंग का अँधेरा और रौशनी की लकीर अब भी आपके साथ है और कहानी के अंत तक साथ रहती है। आख़िरी पन्ने पर पहुँच कर भी आप मानना नहीं चाहते कि किताब ख़त्म हो गई है। क्यों ख़त्म हो जाती हैं ऐसी सुंदर किताबें, आप बच्चे की तरह पूछते हैं।

पढ़ना आपको एक ही जीवन में, एक ही संसार में कितने संसार देखने का अवसर देता है — यह सोच कर भी नशा हो आता है। नशा — यही एक शब्द है जो मैं पढ़ने के समतुल्य रख सकता हूँ। स्कूल के दिनों में मुझे पढ़ने का नशा था। मैंने कक्षा आठवीं तक १० पुराण , गीता रामचरित मानस इसी नशे में पढ़ डाली थी। मुझे याद है कि इन दिनों फिर से उस नशे को अपनी रगों में महसूस करते हुए एक दिन में सचमुच अपने-आपसे पूछ रहा था कि इन बीते सालों में तुम कर क्या रहे थे? तुम पढ़ क्यों नहीं रहे थे? और मुझे सचमुच यक़ीन नहीं आता कि बीते कई सालों में यह कैसे संभव हुआ कि मैंने इतना कम पढ़ा। पढ़ने के नशे के सामने लिखना बहुत पीछे छूट जाता है — बहुत पीछे। मुझे आता क्या है जो मैं लिखूँ? मैंने देखा क्या है, जाना क्या है जो मैं लिखूँ?

पढ़ने के साथ और उसके रोमांच के साथ एक और अनुभूति है जो गहराई से जुड़ी है — बच्चा हो जाने की अनुभूति। पढ़ते हुए मैं वापस बचपन में चला जाता हु — उस लोक में जहाँ सब कुछ संभव है और सब कुछ सुंदर है। ऑक्यूपेशन, रजिस्टेंस, युद्ध, कला, पलायन, मानव की जिजीविषा, उसके मन के असंख्य तल — सब कुछ। ऐसा सोचने वालों पर रोमैंटिक होने का आरोप लग सकता है। पर कला है ही एक ऐसा आयाम जहाँ आप स्वतंत्र हैं — सभी तरह के नियमों से और सभी आरोपों से भी।

एक युद्ध को झेलने के बाद कला की भाषा में अपनी बात कहने वाला जब बोलता है तो युद्ध का क्रूर चेहरा भी कोमल भावनाओं में लिपटा हुआ दिखता है। उसके साथ चलते हुए आप युद्ध को सिर्फ़ एक त्रासदी की तरह देख कर, सिर्फ़ उसकी निंदा करके नहीं छोड़ सकते। आप युद्ध के दोनों छोरों पर जाकर युद्ध को झेलते चेहरों को देखते हैं, उनकी आँखों, होंठों, हाथों और माथे को देखते हैं। देखते हैं कि युद्ध के दोनों छोरों पर जूझ रहे लोग कौन हैं और यहाँ क्यों फँसे हुए हैं, युद्ध के दौरान वे कहाँ सोते हैं और कैसे सपने देखते हैं, वे किनसे प्यार करते हैं और किस तरह करते हैं।

क्या यह सब देख पाना भीतर सुंदरता का बोध नहीं जगाता? युद्धभूमि की सुंदरता…

सिर्फ़ इतना ही नहीं, किताबों में सिर्फ़ बाहर के युद्ध नहीं दीखते, भीतर के युद्ध भी उसी तरह दिखाई देते हैं। पढ़ना हमें कहाँ-कहाँ ले जाता है, हम कितने आयाम एक साथ देखते हैं और उनके साथ-साथ हम अपने भीतर चल रहे युद्धों को भी देखना सीखने लगते हैं। पढ़ना हमें देखना सिखाता है — बाहर, भीतर, आगे, पीछे, बीच में, सब तरफ़ — जहाँ भी संभव हो। बचपन में हमारे पास वैसी अबोध उत्सुकता होती थी — तब हम जानना चाहते थे, कुछ भी और सब कुछ को जानना। लगातार पढ़ते रहने पर वैसी अबोध उत्सुकता संभव है। शुरुआत के १० पन्ने पढ़ने करने के बाद आखिरी के १० पन्नो तक पहुंचने की आतुरता का नाम ही अबोध उत्सुकुता है।

पढ़ते हुए हम अपने भीतर दबे बहुत से ऐसे संगीत को स्वर दे पाते हैं, जिसे अब तक हमने पहचानना नहीं सीखा था। संगीत हममें जन्मजात होता है, लेकिन फिर भी बिना सीखे हम संगीत को कहाँ जान पाते हैं? बिना पढ़े हम लिख सकते हैं, लेकिन उतना ही जितना हमें हमारे अनुभव ने सिखाया है। पढ़ कर हम अपने अनुभव में कितने लेखकों और किरदारों के अनुभव, उनके समय, उनकी स्मृति और उनकी दृष्टि को अपने अनुभव में शामिल करते जाते हैं; हम जान भी नहीं पाते।

मज़ा यह कि हर किताब के बाद, हम नई दृष्टि से जीवन को देख रहे होते हैं। कितनी सुंदर बात है कि हम जितना जानते जाते हैं, उतने अबोध होते जाते हैं।

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Nitesh Kumar Patel

The man who writes about himself and his own time is the only man who writes about all people and all time. — George Bernard Shaw